Saturday, March 6, 2010

जब बांध सब्र का टूटेगा, तब रोएंगे....
अभी वक्त की मारामारी है,
कुछ सपनों की लाचारी है,
जगती आंखों के सपने हैं...
राशन, पानी के, कुर्सी के...
पल कहां हैं मातमपुर्सी के....
इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे.....

अभी वक्त पे काई जमी हुई,
अपनों में लड़ाई जमी हुई,
पानी तो नहीं पर प्यास बहुत,
ला ख़ून के छींटे, मुंह धो लूं,
इक लाश का तकिया दे, सो लूं,....
जब बांध.....

उम्र का क्या है, बढ़नी है,
चेहरे पे झुर्रियां चढ़नी हैं...
घर में मां अकेली पड़नी है,
बाबूजी का क़द घटना है,
सोचूं तो कलेजा फटना है,
इक दिन टूटेगा......

उसने हद तक गद्दारी की,
हमने भी बेहद यारी की,
हंस-हंस कर पीछे वार किया,
हम हाथ थाम कर चलते रहे,
जिन-जिनका, वो ही छलते रहे....
इक दिन...

जब तक रिश्ता बोझिल न हुआ,
सर्वस्व समर्पण करते रहे,
तुम मोल समझ पाए ही नहीं,
ख़ामोश इबादत जारी है,
हर सांस में याद तुम्हारी है...
इक दिन...

अभी और बदलना है ख़ुद को,
दुनिया में बने रहने के लिए,
अभी जड़ तक खोदी जानी है,
पहचान न बचने पाए कहीं,
आईना सच न दिखाए कहीं!

इक दिन टूटेगा बांध सब्र का, रोएंगे....


निखिल आनंद गिरि
delete 7/8/09
Aniruddha:
सब कुछ थोड़े ही सूख जाता है
बच ही जाती है स्मृति की नन्ही बूंद
मिल ही जाता है प्रिय का लगभग खो गया पता
अलगनी में सूखते हुए कपड़ों पर बच ही जाती है
देह गंध की नम आँच
पायंचे के घुटनों पर रेंग ही आती है मुलायमियत

सब कुछ थोड़े ही ख़त्म हो जाता है
मृत्यु के बाद भी बचे रहते है अस्थि फूल
सूखे जलाशय के तलछट में जीवित रहती है एक अकेली मछली
विशाल मरुस्थल की छाती पर सूरज के खिलाफ
लहराता है खेजरी का पेड़

सब कुछ नहीं होता समाप्त
हमारे बाद भी बचा रहता है जीने का घमासान
भूख के बावजूद बच ही जाते है थाली में अन्न के टुकड़े
निकल ही आता है पुराने संदूक से जीर्ण होता प्रेम पत्र
सबसे हारे क्षणों में मिल ही जाता है दोस्त ठिकाना .

सब कुछ थोड़े ही मिट पाता है
उम्र के बावजूद भी बचे रहते है देह पर प्रेम निशान
जीवन के सबसे मोहक क्षणों में भी चिपका रहता है बीत जाने का भय

सब कुछ नहीं होता समाप्त।

कवयिता- मनीष मिश्र
delete 7/8/09
Aniruddha:
रचनाकार: सौदा




आमाल[१] से मैं अपने बहुत बेख़बर चला
आया था आह किसलिए और क्या मैं कर चला

है फ़िक्रे-वस्ल[२] सुब्ह' तो अंदोहे-हिज्र[३] शाम
इस रोज़ो-शब[४] के धंधे में अब मैं तो मर चला

निकले पड़े है जामा से कुछ इन दिनों रक़ीब
थोड़े से दम-दिलासे में कितना उफर चला

चलने का मुझको घर से तिरे कुछ नहीं है ग़म
औरों से गो मैं इक-दो क़दम पेशतर[५] चला

क्या इस चमन में आन के ले जायेगा कोई
दामन को मेरे सामने गुल झाड़कर चला

भेजा है वो पयाम मैं उस शोख़ को कि आज
कर ख़िज़्रे-राह[६] मर्ग[७] को पैग़ाम्बर[८] चला

तूफ़ाँ भरे था पानी जिन आँखों के सामने
आज अब्र[९] उनके आगे ज़मीं करके तर चला

'सौदा' रखे था यार से यक-मू[१०] नहीं ग़रज़
ऊधर[११] खुली जो ज़ुल्फ़, इधर दिल बिखर चला
delete 7/7/09
Aniruddha:
पत्थर के खुदा, पत्थर के सनम, पत्थर के ही इन्सां पाए हैं
तुम शहर-ऐ-मोहब्बत कहते हो, हम जान बचा कर आये हैं

बुतखाना समझते हो जिसको, पूछो न वहां क्या हालत है
हम लोग वहीँ से लौटे हैं , बस शुक्र करो लौट आये हैं

हम सोच रहें हैं मुद्दत से , अब उम्र गुजारें भी तो कहाँ
सहरा में ख़ुशी के फूल नहीं, शहरों में ग़मों के साए हैं

होठों पे तब्बसुम हल्का सा, आँखों में नमी सी अये 'फाकिर'
हम अहल-ऐ-मोहब्बत पर अक्सर, ऐसे भी ज़माने आये हैं

'सुदर्शन फाकिर'

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