Saturday, March 6, 2010

कोई आरज़ू नहीं है, कोई मु़द्दा नहीं है,
तेरा ग़म रहे सलामत, मेरे दिल में क्या नहीं है ।

कहां जाम-ए-ग़म की तल्ख़ी, कहां ज़िन्दगी का रोना,
मुझे वो दवा मिली है, जो निरी दवा नहीं है ।

तू बचाए लाख दामन, मेरा फिर भी है ये दावा,
तेरे दिल में मैं ही मैं हंू, कोई दूसरा नहीं है ।

तुम्हें कह दिया सितमगर, ये कुसूर था ज़बां का,
मुझे तुम मुआफ़ कर दो, मेरा दिल बुरा नहीं है ।

मुझे दोस्त कहने वाले, ज़रा दोस्ती निभा ले,
ये मताल्बा है हक़ का, कोई इल्तिजा नहीं है ।

ये उदास-उदास चेहरे, ये हसीं-हसीं तबस्सुम,
तेरी अंजुमन में शायद, कोई आईना नहीं है ।

मेरी आंख ने तुझे भी, बाख़ुदा ‘शकील‘ पाया,
मैं समझ रहा था मुझसा, कोई दूसरा नहीं है ।
---शकील बदायुनी

तल्ख़ी: कड़वाहट,
मताल्बा: सच्चाई,
इल्तिजा: मुस्कान ।
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ग़ैर ले महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ तश्नालब पैग़ाम के

ख़त लिखेंगे गर्चे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के

रात पी ज़म-ज़म पे मय और सुबह-दम
धोए धब्बे जाम-ए-एहराम के
जाम-ए-एहराम =हज की पोशाक

शाह की है ग़ुस्ल-ए-सेहत की ख़बर
देखिये दिन कब फिरें हम्माम के

इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया
वरना हम भी आदमी थे काम के

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